Home अंतरराष्ट्रीय धर्म मार्ग : जीवन सार – गिरीश सारस्वत

धर्म मार्ग : जीवन सार – गिरीश सारस्वत

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मनुष्य जीवन कैसे सफल हो और लोकाचार को समझते हुए कैसे परलोक संवारा जाए इसके लिए हमारे वेद पुराणों में कल्याणकारी वर्णन मिलता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के द्वितीय स्कन्ध के प्रथम अध्याय में वर्णन है कि :-

श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः।
अपश्यतामात्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम्।।
निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः।
दिवा चार्थेहया राजन्कुटुम्बभरणेन वा।।
देहापत्यकलत्रादिष्वात्मसैन्येष्वसत्स्वपि।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति।।

अर्थात जो ग्रहस्थ घर के काम धंधों में उलझे हुए हैं, अपने स्वरुप को नहीं जानते, उनके लिए हजारों बातें कहने- सुनने एवं सोचने, करने की रहती हैं। उनकी सारी उम्र यूँ ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री प्रसंग से कटती है और दिन धन की हाय हाय या कुटुंबियों के भरण पोषण में समाप्त हो जाता है। संसार में जिन्हें अपना अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं ; परन्तु जीव उनके मोह में ऐसा पागल सा हो जाता है कि रात -दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं। इसलिए परीक्षित्! जो अभय पद को प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् श्री कृष्ण की ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिए। मनुष्य जन्म का यही लाभ है कि चाहे जैसे हो – ज्ञान से, भक्ति से अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाए कि मृत्यु के समय भगवान् की स्मृति अवश्य बनी रहे।

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